शुद्ध ‘अहम्’ किसी एक देह उपाधि के साथ व्यष्टि अहंकार (जीव) तथा समस्त उपाधियों के साथ समष्टि अहंकार (ईश्वर) बन जाता है। जैसे एक ही पानी लहर और समुद्र कहलाता है। पानी का लहर और समुद्र दोनों से सम्बन्ध है। व्यष्टि अत्यंत परिछिन्न अहम् व्यापक होते हुये समष्टि में लीन हो जाता है। और जब शुद्ध स्वरुप का ज्ञान होता है तब समष्टि अहम् भी लीन हो जाता है। जब व्यष्टि और समष्टि दोनों अहम् लीन हो जाते हैं तब शुद्ध आत्मा अपने निरुपाधिक शुद्ध स्वरूप में प्रकट होता है।
हरि ॐ !
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