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जिस प्रकार कोई भ्रमर किसी भी पुष्प के पराग को ग्रहण करके परम तॄप्ति का अनुभव करता है। वैसे ही द्वैत भाव को तिरोहित कर अद्वैत में निष्ठ होना किसी भी साधक का आत्यन्तिक लक्ष्य है।