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भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन 

ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ॥

{हे परंतप (अर्जुन) ! मैं अनन्य भक्ति के द्वारा भी इस प्रकार चतुर्भुज रूप में प्रत्यक्ष देखने के लिए, तत्व से जानने के लिए तथा एकीभाव से प्राप्त होने के लिए तत्पर हूँ।}

 

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