अयोऽग्नियोगादिव सत्समन्वया-
न्मात्रादिरूपेण विजृम्भते धीः।
तत्कार्यमेतद्द्वितयं यतो मृषा
दृष्टं भ्रमस्वप्नमनोरथेषु ॥
(जैसे अग्नि का संयोग होने से चैतन्य लोहे का अग्नि जैसा ही विलक्षण रूप दिखाई देता है। वैसे ही चैतन्य (ब्रह्म) के संयोग (व्याप्ति) के कारण बुद्धि, ज्ञाता और ज्ञेय के रूप में दिखाई देती है। बुद्धि के ये दोनों कार्य (प्रभाव) – भ्रम, स्वप्न और मनोरथ (कल्पना) के कारण मिथ्या (असत्य) ही देखे गये हैं।)
ततो विकाराः प्रकृतेरहंमुखा
देहावसाना विषयाश्च सर्वे।
क्षणेऽन्यथाभावितया ह्यमीषा-
मसत्त्वमात्मा तु कदापि नान्यथा॥
(उसी प्रकार अहंकार के कारण प्रकृति में होने वाला परिवर्तन / संशोधन जो सम्पूर्ण शरीर और इन्द्रिय समूह में दिखाई पड़ता है वह भी मिथ्या है। उनका मिथ्यात्व उनमें होने वाले प्रतिपल परिवर्तन के कारण है, अन्यथा आत्मा तो सर्वथा अपरिवर्तनीय ही है।)
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