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जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला है और आत्मा से ही तृप्त रहता है तथा आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है। 

हरि  ऊँ !

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