उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ॥
{(हे मनुष्यों !) उठो, जागो (अपनी चेतना में लौट आओ)। श्रेष्ठ (ज्ञानी) पुरुषों के सान्निध्य में ज्ञान प्राप्त करो। विद्वान् मनीषियों के मतानुसार – ज्ञान प्राप्ति का वह पथ, छुरे (चाकू) की तीक्ष्ण धार पर चलने जैसा ही दुर्गम है।}
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