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‘मैं हूँ’, यह ज्ञान संशय या आलोचना का बिषय नहीं है और न ही आत्मा का निषेध किया जा सकता है, क्योंकि निषेधकर्ता स्वयं आत्मा ही है। जीव का स्वरूप शुद्ध आत्म-चैतन्य ही है। यह साक्षी है और यही ब्रह्म है।
हरि ऊँ !

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