कर्म स्वयं में जड़ है अर्थात कर्म का चेतन जीव के बिना कोई अस्तित्व नहीं है। कर्म फल का प्रदाता ईश्वर है परन्तु मनुष्य अज्ञान वश स्वयं को कर्ता मान कर अभिमानी बन जाता है। अभिमान का सृजन ही स्वार्थ वश कर्म के लिए प्रेरित कर कर्म के महा समुद्र में धकेल देता है जिसमें मनुष्य जीवन भर कर्म बंधन के भँवर में चक्कर काटता रहता है।
हरि ॐ !
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