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‘चेतना’ अपने समक्ष उपस्थित वस्तु को अपनी सत्ता नहीं मानती है, यही ज्ञान का आधार है । वस्तु के समक्ष उपस्थित होने पर वह घोषणा करती है कि यह मैं नहीं हूँ (नेति-नेति) तभी उसे उस वस्तु का ज्ञान होता है।
हरि ऊँ !