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परस्पर मिले हुये इस क्षर-अक्षर अथवा व्यक्ताव्यक्त रूप विश्व का परमात्मा पोषण करता है। मायाधीन जीव भोक्तृ भाव के कारण उसमें बँधता है और परमात्मा का ज्ञान होने पर समस्त पाशों से मुक्त हो जाता है। 

हरि ऊँ !

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