हमारे सारे जगत् का कण-कण प्रभु में स्थित है, श्वास-प्रश्वास और जीवन-मरण सब उन्हीं के अंदर, उन्हीं की प्रेममयी प्रेरणा से चल रहा है। यह सब उनका प्रेममय, आकर्षणमय स्वरुप ही है। उन प्रेम, आनन्द और शांति की अनंत मूर्ति में वियोग, विकर्षण तथा क्लेश की सत्ता ही नहीं है। उनसे इनका स्पर्श ही नहीं है और उनकी अनन्तता के कारण ये हैं ही नहीं; ये मिथ्या हैं, अज्ञान जन्य हैं, कल्पना मात्र हैं,प्रतीतिमात्र हैं।
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