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कामना, आश्रय और परतंत्रता आदि के बंधनों से ज्ञानी सर्वथा मुक्त होता है केवल प्रारब्ध के कारण ही उसे शरीर धारण करना पड़ता है जो हवा से उड़ाये गये सूखे पत्ते की तरह (शरीर रूप में) गतिमान रहता है ।

 हरि ऊँ !

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