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अहंकार की ही वृत्तियाँ बनती हैं। वृत्यात्मक अहं ही जीव है। शुद्ध अहं सत – चित – आनंद है। वही मैं हूँ। यही बोध है। “मैं” का कभी बाध नहीं होता कहीं न कहीं मैं है। यही सत्य है।