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देह एक समय पर एक ही स्थान पर रहेगी जबकि शुद्ध अहं सर्वत्र है। सर्वव्यापक है। सब जीव जन्तु अपने ‘मैं’ को ही तो कह रहे हैं। सब अपने अपने ‘मैं’ की सिद्धि कर रहे हैं। अतः अहंकार वाला ‘मैं’ सीमित है, परिछिन्न है।