सुख एक प्रकार की अनुकूल संवेदना है, जो सदा पराश्रित, स्थान, वस्तु अथवा व्यक्ति सापेक्ष होता है। दूसरे शब्दों में मन की अनुकूल दशा ही मानवीय सुख है। स्वयं से स्वयं में संतुष्टि ही आनंद है, इसे ‘आत्यंतिक सुख’ भी कहते हैं। इसमें निरपेक्षता का भाव होता है। यह एक द्वंद्वातीत स्थिति है जिसका कोई विकल्प नहीं है।
हरि ऊँ !
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