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आत्मा न नेत्रों से ग्रहण किया जा सकता है, न वाणी से, न अन्य इन्द्रियों से और न तप अथवा कर्म से ही। ज्ञान के आलोक से विशुद्ध चित्त होने पर, पुरुष ध्यान के माध्यम से उस निष्कल आत्म तत्व का साक्षात्कार कर पाता है। 

हरि ऊँ ! 

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