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स्वरूप का अहसास होने से जीव ने इस शरीर जगत से सम्बन्ध जोड़ लिया है। चूँकि मूल में ही अविद्या हो गयी वह सारे कर्म अविद्यामय हो गये। भीतर ‘मूलाविद्या’ और बाहर ‘इलाविद्या’ है। अंदर का संसार और बाहर का जगत दोनों के मिलने से यह ‘विश्व’ बन गया।